Thursday 16 March 2017


सुबह

जब रात चुपके चुपके दबे पाँव धीरे धीरे जाने लगती है तब समय मुस्करा उठता है और वह भी उसके संग चल पड़ता है. पर समय मुड़ कर पीछे देखना नहीं भूलता क्योंकि उसे सुबह का भी तो ख्याल रखना है. अन्धेरा अपनी गति से छँटता जाता है और सूरज की किरणें सीधी रेखा में दौड़ पड़ती हैं समय की सीमारेखा बदलने के लिए. सब कुछ रोजाना कितना सहज लगता है. यह करिश्माई नज़ारा हर सुबह देखने को मिलता है. और अगर बारिश हो जाये तो रोमांच का अहसास होने लगता है और समूचे बदन में सिहरन सी दौड़ जाती है. रग रग झूम उठता है और दिल मचल उठ होठों को गोल कर सीटी बजाने लगता है. शरीर ताज़गी से भर चहक उठता है. अंग प्रकृति के संग हो खुशी से थिरक उठते हैं. दिल हुम हुम कर गा उठता है. ऐसा लगता है जैसे अमृतवर्षा में शरीर का हर अंग नहा गया हो.

सुबह में बीते हुए कल की थकान दूर हुई सी महसूस होती है और शरीर अंगड़ाई ले बदन के हर हिस्से को कसरत देता हुआ उछल कर खड़ा हो जाता है. बातों और घटनाओं का समंदर लिए मन शरीर को हिलाने को तत्पर हो उठता है. कभी-कभी नहीं हुए कार्यों से उत्पन्न व्याकुलता दिमाग को झकझोरती है तो मन सकारात्मक हो नयी उमंग से मुट्ठियाँ भींच अपने इरादों को बल देने लगता है. अपनी शक्ति को संचित कर किसी भी कीमत पर रुके हुए कार्य को अंजाम देना मकसद बन जाता है.
अत्यंत ही सुखद अहसास होता है जब सूरज की लालिमा खिड़कियों से हो कर तन को छू गुदगुदी लगा जाती है. हलकी सी गर्मी, मीठी सी चुभन और सुंदर सा अहसास. मन खुश और व्याकुल हो उठता है.. नज़रें घूमती हैं तो दूर...दूर...बहुत दूर सूरज चिढ़ाता , मुस्कराता, देखता जाता है , मानो कह रहा हो ‘तुमसे मिलने तो मैं हर सुबह अपनी लाली में अपने आप को समेटे आऊँगा और तुम्हें जगाऊँगा. दिन भर तो मुझे देखते भी नहीं. या तो शाम में एक बार नज़र उठा कर देख लेते हो या फिर जब बादल मुझे घेर लेते हैं तभी आँखें उठा और पलकें झपका मुझे देखने की कोशिश करते हो.
फिर जब नज़र घूमती है तो पक्षी चहचहाते हुए दिखते हैं, बच्चे स्कूल की बसों में चढ़ने के लिए दौड़ते हैं, महिलायें अपना काम निपटाती हुई नज़र आती हैं, अखबार वाला बोलता हुआ आता है, कुछ फेरीवाले आस-पास आते जाते हैं. फिर लगता है, अरे सब कुछ तो बिल्कुल सामान्य है तो फिर यह उतावलापन क्यों? हँसी आ जाती है अपनी हड़बड़ाहट पर, फिर किसी को नमस्ते कर या कोई अभिनन्दन स्वीकार कर नए दिन की शुरूआत हो जाती है.

लगता है हर दिन हमारा नया जन्म होता है. दिन का बंटा हुआ भाग ही तो सुबह है. रात मौत की तरह होती है. पता नहीं होता कि अगली सुबह नींद टूटेगी भी या नहीं. अनुमान पर ज़िन्दगी चलती हुई सी जान पड़ती है. इस विषय पर तो साइंस भी खामोश है. उसकी भी सीमायें हैं. कल्पनाओं के आकाश में मन ही सीमायें तोड़ पाता है अन्यथा हर व्यक्ति, हर चीज़ सीमाबद्ध है. इस सच्चाई से कौन इन्कार कर सकता है? एक नवजात शिशु की तरह सूरज प्रकृति की गोद से निकल संसार को अपने प्रकाश से आलोकित करता है. चारों तरफ उल्लास ही उल्लास होता है. कभी बादलों के बीच लुका-छिपी करता दिखाई देता है तो कभी पूरे जोश में हंसता हुआ जान पड़ता है. पर पता नहीं क्यों ‘समय’ उसके आगे-आगे हमेशा चलता, इतराता दिखाई देता है.

कोयल की मीठी कूक अगर सुबह में सुनाई दे जाए तो बदन रोमांचित हो उठता है. फील्स ग्रेट टू बी अप इन द मॉर्निंग. फैंटसी सीम्स टु हैव टर्न्ड इंटू रियॉलिटी. मन मिठास से भर उठता है. चारों तरफ़ संगीत की मिठास घुल जाती है वातावरण में . आकाश की तन्हाई और खामोशी को खुल कर उड़ते पंछी चहचहा कर तोड़ देते हैं. बादलों के बगल से पंछियों का काफिला दूर उड़ता दिख जाये तो फिर लगता है कल्पनाओं की उपज स्वर्ग यहीं तो है. बस संवेदनाओं और अनुभूतियों का संगम है जिसकी परिणति सुखद अहसास में ही होती है.
थका हुआ तन, थका हुआ मन रात की उबासी से निकल दौड़ पड़ता है नयी दिशाओं की ओर. सब कुछ कितना सहज होता है. कैसे अनायास यह सब होता चला जाता है, किसी को भी तो पता नहीं होता.  यह रहस्य मन को निरंतर परेशान करता रहता है. तन चल पड़ता है मन की आवाज़ पर. कुछ ज़हर मन की तड़प को ज़ख्मी करते हुए साथ साथ चलते रहते हैं. भूलना तो इंसान की आदत है; नहीं भूलना, मजबूरी. गहरे ज़ख्मों का कोई मलहम भी तो नहीं होता. वक़्त के साथ हलके पड़ जायें तो गनीमत है, वरना गहरा रह जाए तो हक़ीकत है. एक दुविधा की स्थिति सी बन जाती है जो न जाने क्या क्या कर बैठने को पागल कर देती है. पर फिर...सुबह के अनूठे सफ़र में किसी दोस्त से कुछ पलों की मुलाकात ताज़ी हवा की तरह आ कह उठती है – कहाँ खोये हुए हो? ज़िन्दगी तो यूँ ही चलती है. कीप कूल! जो बीत गयी सो बात गयी. बीते हुए पर नियंत्रण भी तो नहीं था. आज में जियो. कल क्या होगा किसको पता?

व्याकुलता, तत्परता और कभी कभी बड़ी तेज गति हो जाती है कुछ लोगों की. लगता है सुबह होने के इंतज़ार में ही किसी तरह रात काटी थी. हर सुबह एक नए सफर की शुरुआत. काम तो लगभग एक सा ही होता है पर सुबह तो वक़्त के पैमाने पर बदल जाती है. नयी आशाएँ कुछ नया होने की संभावना का मार्ग प्रशस्त करती जान पड़ती हैं. पर हर सुबह उम्मीदों का सिलसिला मन को उमंग से तो भर ही देता है. सैकड़ों आंकड़े दिमाग में लिए इंसान चल पड़ता है – कभी अपने आप को उलझा पाता है तो कभी सुलझा. पर आगे का किसी को नहीं पता होता. गेस वर्क चलता रहता है. मंज़िल का झिलमिलाता स्वरुप दिखायी देता रहता है. फिर दिमाग में हरकत होती है और मन नयी बातों के चक्रव्यूह से अपने आप को निकालने की कोशिश करने लगता है.
फूलों की खुशबू सुबह में वातावरण को अपनी बाँहों में ले लेती है. चारों तरफ़ खुशबू ही खुशबू. हवा में ताज़गी आ जाती है जिससे मन चहक उठता है. यादों, वादों और इरादों के बीच ज़िन्दगी कुछ करते रहने को कह बहक उठती है. सबों को, फूल देते हैं, अपनी ख़ूबसूरती और ताज़गी का नायाब तोहफ़ा. खिले फूलों को चहकते देख कौन खुश नहीं होता? किसी ने कहा ही है – ज़िन्दगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकी रहे. फूल अरमानों को पंख देते हैं जिनसे कामयाबी की ऊँचाइयों तक पहुँचा जा सकता है. 

किरणें भी शोख़ और शरारती होती हैं. किसी को भी तो नहीं छोड़तीं अपनी पहुँच से. जहां जहां जाती हैं मन को महकाती हैं. निरंतर कठोर और कर्कश होती दुनिया में अपना कोमल सन्देश छोड़ जाती हैं. उठ खड़ी होती है ज़िन्दगी. किरणों का मखमली स्पर्श खामोश हो नयी ताक़त भर देता है बदन में. एक सिहरन सी दौड़ जाती है. अपने आप को नए चश्मे से देखने का दिल करने लगता है. चश्मे पर धूल पड़ जाये तो उसे साफ़ कर देना चाहिए या फिर ज़्यादा पुराना हो जाये तो उसे बदल देना चाहिए. नयी नज़र से दुनिया को देखने की चाहत पुरानी बातों को भुला देने की भरसक कोशिश करती जान पड़ती है. नज़रिया बदल जाये तो ज़िन्दगी बदल जाती है. किरणें ही तो थोड़े समय में यह सोच पैदा कर अपना काम कर जाती हैं.
पागल मन और घायल तन जो कल एक दूसरे में समाये सोये पड़े थे सुबह होते ही नए अरमान संजोने लगते हैं. नशे में चलने लगती है ज़िन्दगी जब तन और मन मिल जाते हैं. नशा न हो तो ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती कोसों दूर चली जाती है और रह जाता है सिर्फ एक फ्रेम जो ऐडजस्ट  करता हुआ दिमाग से नियंत्रित हो सोसायटी  में आवाज़ करता हुआ चलता फिरता है – अस्तित्व की सामान्य अभिव्यक्ति.

सुबह होते ही जोश से लबालब इंसान हक़ीकत से दो दो हाथ करने को बेचैन हो उठता है. बुलंद इरादों से वह चल पड़ता है अपनी कामयाबी के लिए लड़ने और जीत हासिल करने. जिस तरह सूरज धीरे-धीरे वक़्त के साथ गरम होता जाता है, उसी तरह इंसान भी तपता चला जाता है. और जब तपन की तीव्रता अधिक हो जाती है तब वह अपनी मंज़िल के करीब पहुँच मुस्करा उठता है – अपने सत्य को अपने सामने खड़ा पाता है वह.

आशा के दीप जल उठते हैं जब नयी सुबह की बात होती है. प्रसंग बदल जाते हैं. पर शब्द तो सीमाहीन होते हैं – किसी भी बात की ओर इशारा कर देते हैं. मन उनके अलग अलग मायने लगाने लगता है. खुली मानसिकता को तो सब कुछ स्वीकार्य है. हवाओं का रुख बदलने की ताक़त खुली मानसिकता वालों में ख़ूब रही है. इतिहास ने हर देश में नयी सुबह होने का इंतज़ार हमेशा करवाया है . मौत से लड़ता हर सिपाही अपने मन में यही आस रखता आया है की नयी सुबह होगी, नए अध्याय जुड़ेंगे, देश को नयी दिशा मिलेगी और आने वाले समय में तरक्की के नए आयाम देश के इतिहास से जुड़ेंगे.

जब सुबह आलस की अंगड़ाइयाँ लेती रात की अँधेरी चादर को हटा सूरज के आने की तैयारी में जुट जाती है तो गांवों में चरवाहे मवेशियों को हाँकते निकल पड़ते हैं. दूर...बहुत दूर सूरज एक राजकुमार की तरह सुनहरे लिबास में तैयार होता दिखाई पड़ने लगता है.इधर उधर उड़ते पक्षी खुश हो चहचहा उठते हैं. एक उमंग, एक स्फूर्ति चारों तरफ दौड़ने लगती है. चंचल हो हवाएं भी झूम उठती हैं.

शहरों की हवा में आधुनिकता तो होती है – पैसों की झनझनाहट तो सुनायी पड़ती रहती है – ख़ूबसूरत डिज़ाइनों वाली इमारतें लाइन से लगी होती हैं – सुख-सुविधाओं का अम्बार सा लगा होता है, पर फ़ास्ट लाइफ और फ़ास्ट फ़ूड और हर घंटे का कैलकुलेटेड प्रेशर जीवन का मुख्य अंश ले लेता है. फिर भी शहरों में थोड़ी देर के लिए ही पुरुष, महिलायें, बच्चे थोड़ा टहल लेते हैं, थोड़ा दौड़ लेते हैं, थोड़ा व्यायाम भी कर लेते हैं. साँसों की स्पीड भी बढ़ा हुई ही होती है. जल्दी जल्दी जीना भी तो है. पर बड़े ख़ूबसूरत लगते हैं ऊँचे ऊँचे भवन और उन पर कलाकारों  का काम देखने के लायक होता है. सुबह में ख़ूबसूरती बढ़ भी तो जाती है क्योंकि हर कोना और हर ईंट दिखाई देती है.

बीते दिनों की बात है जब महिलायें सुबह उठ कर सूर्य को नमस्कार कर कहती थीं, “हे भगवन्, सुबह हो गयी.” जिंदगी का खुल कर लुत्फ़ उठाने वाली आज की आधुनिक महिला कह उठती है, “ हे भगवान, सुबह हो गयी?” आधुनिकता में आराम है तो इसके विशेष आयाम भी तो हैं.

ओस की बूँदें चमक उठती हैं जब सूरज की किरणें उन पर नृत्य कर उठती हैं. रंग बिरंगे पक्षी कोलाहल करते हुए अपने घोसलों से निकल पड़ते हैं और  हवाओं में ऊपर नीचे तैरते हुए अपनी ख़ुशी का इज़हार करते नहीं थकते. अत्यंत ही मनोरम दृश्य होता है जो यादों में समा जाता है. जब उगते सूरज की लालिमा आकाश को चूमते हुई बादलों के किनारों पर करवट ले दूर दूर तक बिखर जाती है तो आँखें भी खामोश हो बहुत कुछ कह जाती हैं.

किसी कवि की कल्पना में सुबह की सुन्दरता इस कदर समा जाती है  की उसकी कलम भी मचल उठती है और कागज़ के कोरे पन्नों पर एक अनूठी रचना को अंकित कर जाती है. लगता है निद्रा के आगोश में रात भर समा मन नए विचारों के साथ अगली सुबह जन्म लेता है. तभी तो सुबह होते ही एक अनूठी ताज़गी का अहसास मन को सीमाओं को तोड़ने की ताक़त दे निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. एक नयी आशा की किरण अँधेरे को चीरती हुई कह उठती है, “मैं हूँ ना!”


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